MP News: छतरपुर से 100 किमी दूर बक्सवाहा के घने जंगलों में एक ऐसा रहस्य छिपा है, जो अगर सामने आया, तो पूरे राज्य की तकदीर बदल सकती है। जमीन के नीचे दबा पड़ा है 6000 किलो हीरा — जिसकी कीमत है करीब 60 हजार करोड़ रुपये। सवाल यही है। क्या कभी बाहर निकलेगा ये खजाना?
देखें हीरे से भरा जंगल या छुपा खजाना?
बक्सवाहा के जंगलों में ये खोज कोई नई नहीं है। 25 साल पहले शुरू हुई थी एक खोज, जब ऑस्ट्रेलियाई कंपनी रियो टिंटो ने यहां सर्वे किया। रिपोर्ट में सामने आया कि यहां ज़मीन के नीचे 3.4 करोड़ कैरेट यानी लगभग 6000 किलो हीरे का भंडार है।
किंबरलाइट की चट्टानों में दबी करोड़ों की दौलत
हीरे की पहचान का सबसे पुख्ता सबूत होते हैं किंबरलाइट पत्थर और बक्सवाहा की धरती के नीचे मिलीं इन चट्टानों ने वैज्ञानिकों और खनिज अधिकारियों को चौंका दिया। उस समय इस पूरे भंडार की अनुमानित कीमत 55 हजार करोड़ रुपये थी, जो अब बढ़कर 60–70 हजार करोड़ आंकी जा रही है।
देखें आखिर क्यों लटक गया खनन प्रोजेक्ट?
रियो टिंटो ने 2005 तक सर्वे पूरा कर लिया था, लेकिन 2017 में कंपनी अचानक इस प्रोजेक्ट से बाहर हो गई। इसके बाद सरकार ने इस प्रोजेक्ट को नीलामी में डाला और 2019 में आदित्य बिड़ला ग्रुप की एसेल माइनिंग कंपनी को 50 साल की लीज पर सौंप दिया गया।
हाईकोर्ट का स्टे
खनन शुरू होने से पहले ही पर्यावरण प्रेमियों और सामाजिक संगठनों ने विरोध शुरू कर दिया। आरोप लगे कि इससे लाखों पेड़ काटे जाएंगे और बक्सवाहा का पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में आ जाएगा। इसी विरोध के चलते मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने इस पूरे प्रोजेक्ट पर स्टे लगा दिया।
खनिज अधिकारी अमित मिश्रा के अनुसार, “खनन का क्षेत्र सिर्फ 364 हेक्टेयर था, जबकि अफवाहें फैलाईं गईं कि पूरा जंगल उजड़ जाएगा।” उनका दावा है कि आधुनिक तकनीक की मदद से केवल फुटबॉल ग्राउंड जितनी जमीन पर खुदाई होती है और जितने पेड़ कटते हैं, उसके 10 गुना पेड़ लगाए भी जाते हैं।
एशिया की सबसे बड़ी हीरा खदान बन सकता था बक्सवाहा
अगर ये माइनिंग प्रोजेक्ट चालू हो जाता, तो यह एशिया की सबसे बड़ी डायमंड माइन होती। मध्य प्रदेश, जो आज भी गरीबी और बेरोजगारी से जूझ रहा है, उसकी आर्थिक तस्वीर पूरी तरह बदल सकती थी। रोजगार, राजस्व और अंतरराष्ट्रीय पहचान एक झटके में मिल जाती।
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लोगों में इस प्रोजेक्ट को लेकर मिला-जुला रवैया है। एक तरफ जहां स्थानीय युवाओं को रोजगार की उम्मीदें हैं, वहीं दूसरी ओर पर्यावरणविद और आदिवासी संगठन जंगल की कटाई और पारिस्थितिकी तंत्र के नुकसान को लेकर चिंतित हैं।
अगर सरकार आधुनिक तकनीकों और सख्त पर्यावरण नियमों के साथ इसे आगे बढ़ाती, तो शायद दोनों पक्षों के हित सुरक्षित रखे जा सकते थे।
क्या बक्सवाहा का हीरा कभी जमीन से बाहर निकलेगा या यूं ही अफसरशाही और विरोध की धूल में दबा रह जाएगा?
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